मिलिंद साहेब,

अप्रतिम.....

""प्रासाद होत आहे" आणि "इर्शाद होत आहे" विशेष आवडले.

 

मिर्ज़ा गालिब ची एक दर्दभरी ग़ज़ल आठवली

"दिल ही तो है ना संगो-खिस्त, दर्द से भर ना आए क्यों

 रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमे सताए क्यों !!

 

हॉ वो नही खुदा परस्त, जाओ वो बेवफा सही

जिनको हो दिनो-दिल अज़िज़ उनकी गली मे जाए क्यों !!

 

ग़ालिब-ए-खस्ता के बगैर कौनसे काम बंद है

रोईए ज़ार-ज़ार क्या, किजीए हाए हाए क्यों !!"

 

-शशांक....