दत्तकृपायोग (अभंग) - भाग ६

स्वामी समर्थांचा| दृष्टांत स्मरोनी|
विस्मयचकीत| होई माता||

वंदुनी चरण| गुरुदेवांचे|
करोनिया घेई| परिचय||

सुहास्य वदने| बोलती ते मग|
मोजकेच शब्द| आश्वासक||

भाषा पांडित्याचा| नसे बडिवार|
सहज सुंदर| बोली भाषा||

परी लपविता| लपू नये ऐसा|
स्वभावेच सिद्ध| अधिकार||

होऊनी नि:शंक| निर्भय आश्वस्त|
जाई परतोनी| जननी ती||

शिष्यासी सामोरे| बसवोनी मग|
सद्गुरू करती| उपदेश||

शब्दमात्र त्यांचा| परम कारुणिक| 
प्रसंगोचित| यथायोग्य||

म्हणती ते पुत्रा| अससी तू योगी|
अधिकार तुझा| जन्मसिद्ध||

संचिताच्या योगे| लाभला रे तुला|
गूढ अनुभव| अतींद्रिय||

महामायेचाच| असे सारा खेळ|
विसरोनी जावा| सुज्ञपणे||

संपता आभास| क्षणिक तयाचा|
येई परतोनी| जगद्भान||

परी ध्यानी घ्यावा| संकेत तो गुप्त|
लाभे आज तुला| अधिष्ठान||

नाही तू अभागी| निर्बल असहाय|
स्वामीशक्ती उभी| तुजपाठी||

जाणोनिया तुज| मानसीची व्यथा|
अंतरीचे गुज| सांगतो मी||

सद्गुरू चरणी| ठेवी दृढ भाव|
भक्ती हीच शक्ती| असे तुझी||

नित्य उपासना| नेमाने करावी|
असावे सतत| शुचिर्भूत||

विकार वासनांनी| घालिता थैमान|
सद्गुरुचरण| आठवावे||

जरी मनोवेग| जाहले प्रबळ|
तयायोगे झाला| अध:पात||

विसरोनी त्याला| उभे तू ठाकावे|
पुन्हा झुंजावया| निर्धाराने|| 

अभ्यासाच्या योगे| होई ना जे साध्य|
जगी ऐसे अप्राप्य| नसे काही|| 

साधिता हा योग| वाढे मनोबल|
वृत्ती मग तेणे| स्थिरावेल||
 
कर्तव्या विन्मुख| होऊनिया कोणी|
साधला का कधी| परमार्थ||

करोनी मनाचा| निर्धार कठोर|
कर्तव्या सन्मुख| व्हावे रे तू||

गुरुउपदेश| श्रवण करोनी|
शिष्य मनोमन| सुखावला||

परतोनी जाता| स्वग्रामासी|
सुरू होई पर्व| संघर्षाचे||  

[एक अध:पतित, दुर्दैवी, नैराश्यग्रस्त आणि आत्मघाताकडे निघालेल्या युवकाला पूर्वसुकृतानुसार योग आल्यावर सद्गुरू भेटतात. दत्तकृपायोगाने त्याच्या वृत्तीमध्ये आणि आयुष्यात स्थित्यंतरे येतात.   एक  कहाणी  अभंग स्वरूपात मांडण्याचा प्रयत्न (क्रमश:) ]