असं सहसा होत नाही

     अंगणी  आनंद-पारिजात

     गंध  त्याचा  पोचेना  मनात

     मन  मिटू  मिटू  पाही

     असं  सहसा  होत  नाही.....

     पहिला  पाऊस  जीव  उदास

     नकोसा  ओल्या  मातीचा  वास

     झरा  जीवाचा  कोरडा  राही

     असं  सहसा  होत  नाही.....

     भोवती  नाचणारा  प्रीतीचा  मोर

     वाटतो  घटत्या  चंद्राची  कोर

     तोही  कुठे  लपून  जाई

     असं  सहसा  होत  नाही.....

     सप्तसूरांत  गाण्यांचा  पूर

     आता  कुठे  हरवला  सूर

     तंबोराही  विनवतो  काही

     असं  सहसा  होत  नाही.....

     हे  काय  नवल  नवं ?

     "मी"  हरवले ?  शोधायला  हवं

     शोधूनही  सापडणार  नाही

     असं  सहसा  होत  नाही.........

                      प्रज्ञा महाजन  (३१-०७-२००९)