दत्तकृपायोग (अभंग) - भाग ७

व्यवहारी जगात| परतोनी येता|
सामोरे ठाकले| कुरुक्षेत्र||

वृत्तीने दांभिक| स्वार्थपरायण|
शल्याचे अवतार| आप्त सारे||

वैफल्याने ग्रस्त| मत्सरी जीवाना|
मिळाले  सावज| अनायास||

आप्त स्वकीयांनी| रोज हिणवावे|
करावा पदोपदी| अपमान|| 

टोचुनी मारावे| घायाळ पाखरू|
चाले क्रूर खेळ| गिधाडांचा||

सद्गुरू कृपेचा| मिळता आधार|
धीरोदात्त माता| सावरली||

ईश्वरी कृपेने| लाभे सहोदर|
जैसा ज्ञानदेवा| निवृत्तीच||

मिळता दोघांचा| समर्थ आधार|
हळूहळू शिष्य| सावरला||

निर्धाराने मग| स्वीकारे नोकरी|
अत्यल्प वेतन| मिळे जरी||

सहाध्यायी सारे| व्यवहारी यशस्वी|
जीवनात सारे| सुस्थापित||

कधी वाटे खेळ| प्रारब्धाचा सारा|
कधी वाढे जोर| वैफल्याचा||

सद्गुरू स्मरण| करोनिया मग|
पुन्हा व्हावे त्याने| कार्यमग्न||

सद्गुरू कृपेने| शिष्योत्तमाचे|
हळूहळू पालटे| 'मनोगत'||

मनोदौर्बल्याला| देऊ नये थारा|
सद्गुरूंचा उपदेश| आठवावा||

स्वये ठरवावे| अल्पसे उद्दिष्ट|
साध्य ते करावे| प्रयत्नांती||

यत्ने मिळवावे| तांत्रिक नैपुण्य|
जरी ते वाटले| कष्टसाध्य||

स्वकर्मी करावा| विनियोग त्याचा| 
तेथे कामी येई| योजकता||

संघभावनेचा| आदर्श पाळावा|
देऊ नये थारा| मत्सराला||

सारासार विचार| करोनी आपले|
मांडावे विचार| ठामपणे||

सुधारण्या चूक| असावे तत्पर|
ठेवावी भूमिका| लवचिक||   

निजनिष्ठा ठेउनी| प्रयत्ने साधावा|
आपला आपण| अभ्युदय||

नित्य चाले खेळ| उन सावलीचा|
तैसे यश आणि| अपयश||

समत्व बुद्धीने| साहावे दोन्हीही|
ठेउनिया वृत्ती| स्थितप्रज्ञ||

कर्मभोग सारे| ईश्वरा अर्पुनी|
सहज ते प्राप्त| नि:श्रेयस||

[एक अध:पतित, दुर्दैवी, नैराश्यग्रस्त आणि आत्मघाताकडे निघालेल्या युवकाला पूर्वसुकृतानुसार योग आल्यावर सद्गुरू भेटतात. दत्तकृपायोगाने त्याच्या वृत्तीमध्ये आणि आयुष्यात स्थित्यंतरे येतात.    एक  कहाणी  अभंग स्वरूपात मांडण्याचा प्रयत्न (क्रमश:) ]