मी निपुत्रिक सांजवेळी कैक आले सोयरे
पापण्या भिजल्या न त्यांच्या, फक्त सुतकी चेहरे
आज वांझोटीस पान्हा संपदेच्या कारणे
जाणती देवा गिधाडे फक्त अपुली सोय रे!
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लावतांना मौंज त्याची मीच होते शिकवले
मोह टाळा, ज्ञान मिळवा, पूर्ण होते ठसवले
सोडले संस्कार, शिकवण, जाहला माथेफिरू
आज त्याने राजकारण क्षेत्र आहे निवडले
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मागणाऱ्यांना मिळे तो न्याय का असतो कधी ?
जो गुन्हा करतो तयाचा पाय का फसतो कधी ?
मुक्त आत्मा तोच असतो पारडे जो झुकवतो
रामशास्त्री दीन, हतबल, गाय का दिसतो कधी ?
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जी मनी बसली कधीची, ती घरी आलीच नाही
जी घरी आली रहाया, ती मनी बसलीच नाही
लावला मी मुखवटा अन जिंदगी तडजोड बनली
झाकली भळभळ अशी की ती कुणा दिसलीच नाही
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निशिकांत देशपांडे मो.नं. ९८९०७ ९९०२३
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